

सुखनंदन कश्यप voice36.com
जांजगीर-चांपा। शनिवार को जांजगीर-चांपा ज़िले में स्वास्थ्य व्यवस्था की एक दर्दनाक और शर्मनाक तस्वीर सामने आई, जब प्रसव पीड़ा से जूझती महिला को सरकारी अस्पताल ने यह कहकर लौटा दिया कि “आज डिलीवरी नहीं होती, छुट्टी है”। इसके बाद जो हुआ, उसने मानवता को झकझोर कर रख दिया।
सरकारी अस्पताल से मिली बेरुखी
बसंतपुर निवासी जितेन्द्र साहू अपनी पत्नी शिवरात्रि को लेकर जिला अस्पताल पहुंचे थे, लेकिन वहां से उन्हें यह कहते हुए लौटा दिया गया कि डिलीवरी की सुविधा आज उपलब्ध नहीं है। पीड़िता को पहले सिटी डिस्पेंसरी ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने स्पष्ट देखा कि प्रसव की स्थिति बन चुकी है, लेकिन फिर भी रेफर कर दिया गया।
निजी अस्पताल ने वसूले पैसे, बच्चा नहीं बच सका
परिजन मजबूरी में चांपा के एक निजी अस्पताल पहुंचे, जहां डॉ. अतुल राठौर ने डिलीवरी कराई। बच्चे की हालत गंभीर बताकर उसे जिला मुख्यालय के एक अन्य निजी अस्पताल – आयुष्मान (प्रसाद) अस्पताल – रेफर किया गया। यहां इलाज के नाम पर परिजनों से 8 से 10 हजार रुपये प्रतिदिन की मांग की गई और नवजात को वेंटिलेटर पर रखा गया।
“मरा बच्चा छुपाकर इलाज दिखाया” – पिता का आरोप
पिता जितेन्द्र साहू का आरोप है कि अस्पताल प्रबंधन ने उनके मृत बच्चे की जगह किसी और नवजात को वेंटिलेटर पर रखकर पैसे वसूले। जब उन्होंने बच्चे को देखने की ज़िद की, तब बताया गया कि बच्चा तो रात में ही मर चुका था। इस खुलासे के बाद परिजन शव लेकर गांव लौटे और अंतिम संस्कार कर दिया।
पुलिस ने कब्र से शव निकलवाकर कराया पोस्टमार्टम
मंगलवार को शिकायत मिलने के बाद पुलिस हरकत में आई। बुधवार को नवजात का शव कब्र से निकलवाया गया और पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया। कोतवाली टीआई प्रवीण द्विवेदी ने बताया कि मर्ग कायम कर जांच शुरू कर दी गई है।
प्रशासन भी सक्रिय – कलेक्टर के निर्देश पर एसडीएम पहुंचे अस्पताल
कलेक्टर जन्मेजय महोबे के निर्देश पर रविवार को एसडीएम ने आयुष्मान अस्पताल पहुंचकर डॉक्टरों और स्टाफ के बयान लिए। मामला अब प्रशासनिक जांच के दायरे में है।
अस्पताल प्रबंधन ने आरोपों को नकारा
आयुष्मान अस्पताल के संचालक डॉ. आरके प्रसाद ने कहा कि बच्चा बेहद गंभीर हालत में लाया गया था और उसने जन्म के समय रोना तक शुरू नहीं किया था। “हमने इलाज की पूरी कोशिश की। आरोप बेबुनियाद हैं,” उन्होंने कहा।
क्या यह लापरवाही नहीं हत्या है?
यह घटना सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि व्यवस्थागत असंवेदनशीलता और लालच का भयावह चेहरा है। सवाल उठता है—क्या सरकारी अस्पतालों में जीवन रक्षक सेवाएं अब छुट्टियों पर होती हैं? और क्या निजी अस्पतालों के सामने गरीब की जान की कोई कीमत नहीं?