

बिलासपुर। ज़िले के रतनपुर में पत्रकारिता और सत्ता के टकराव का एक सनसनीखेज मामला सामने आया है, जिसने पूरे पत्रकार समाज और जनमानस को झकझोर दिया है। यहां एक स्थानीय पत्रकार द्वारा पुलिस की कथित मिलीभगत उजागर करने वाली खबर प्रकाशित करने पर रतनपुर थाना के एएसआई नरेश गर्ग ने पत्रकार को कानूनी नोटिस भेज डाला। नोटिस की भाषा, भाव और उद्देश्य तीनों पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
*खबर की पृष्ठभूमि – सच की कलम और सिस्टम की सेंध :* पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि कुछ शराब माफिया पुलिस की गिरफ्त में आए, लेकिन बीस हजार रुपये की ‘सेवा राशि’ के बाद छोड़ दिए गए। चौंकाने वाली बात यह रही कि वही आरोपी दो दिन बाद फिर से गिरफ्तार हुए। इस पूरे घटनाक्रम पर सवाल उठाती खबर छपते ही एएसआई नरेश गर्ग की ओर से पत्रकार को एक रजिस्टर्ड नोटिस थमा दिया गया जिसमें खबर के ‘प्रभाव’ से अधिक, अधिकारी की ‘भावनाएं’ आहत होने की दुहाई दी गई।
*नोटिस में क्या-क्या मांगा गया :*
* 7 दिन में जवाब दें
* खबर के सभी सबूत पेश करें
* पत्रकारिता की शैक्षणिक डिग्री व योग्यता बताएं
* मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक क्षति के लिए जवाबदेही तय करें
*यह नोटिस सीधे-सीधे उस मानसिकता को दर्शाता है जिसमें खबर के जवाब में खंडन या विवेचना नहीं, बल्कि दमन और डराने की नीति अपनाई जाती है।*
*“ये कलम नहीं झुकेगी” -* पत्रकार का स्पष्ट बयान है “मैंने कोई कहानी नहीं, दस्तावेज़ और चश्मदीद बयानों के आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। अब मैं एसपी दरबार में सबूतों के साथ हाज़िर होकर सच्चाई सामने रखूंगा। अगर सिस्टम चाहे तो मैं स्टिंग ऑपरेशन के वीडियो भी सामने रख सकता हूं।”
*कप्तान के दरबार में अब होगी असली परीक्षा :* पूरा मामला अब बिलासपुर के पुलिस अधीक्षक के सामने रखा जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि कौन क्या कह रहा है। सवाल यह है कि कप्तान किसकी सुनेगा: तथ्य की या पद की? यह वही मोड़ है जहां लोकतंत्र की रीढ़ कही जाने वाली पत्रकारिता और प्रशासन की जवाबदेही आमने-सामने खड़ी हैं।
*जनता का सवाल – कलम से डर क्यों :* सोशल मीडिया पर इस पूरे घटनाक्रम को लेकर जबरदस्त प्रतिक्रिया है –
* “अगर खबर झूठ थी, तो साक्ष्यों के साथ खंडन क्यों नहीं?”
* “अगर खबर सच्ची थी, तो कानूनी हथियार से हमला क्यों?”
* “क्या अब पत्रकार को पहले डिग्री दिखानी होगी, फिर सवाल पूछने की इजाज़त मिलेगी?”
*ये सिर्फ एक नोटिस नहीं, लोकतंत्र को दी गई चुनौती है :* यह मामला एक छोटे शहर के थाने तक सीमित नहीं है। यह एक बड़ा सवाल बनकर उभरा है क्या पत्रकारिता अब स्वतंत्र नहीं, सशंकित होगी? जब सत्ता सवाल पूछने वालों से ही जवाब मांगने लगे तो समझिए कि लोकतंत्र की आत्मा घायल हो रही है।
अब नजरें पुलिस कप्तान पर हैं – क्या वे ‘सत्ता की सुविधा’ देखेंगे या ‘सच की सबूत’? क्या यह दरबार न्याय का बनेगा या नौकरशाही का उपकरण?
कहानी अब आगे बढ़ चुकी है कलम रुकेगी नहीं।